सोमवार, 8 जून 2015

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जनसंपर्क: कैसे करें छवि का निर्माण?

By News Writers, May 21, 2015
रश्मि वर्मा।
संचार प्रत्येक सामाजिक प्राणी की मूलभूत आवश्‍यकता है, जिसके जरिए वह परस्पर भावों, विचारों, जानकारियों और ज्ञान का आदान-प्रदान करता है। एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य के बीच संपर्क सेतू का काम करता है संचार और जनसंपर्क इसी संचार प्रक्रिया को निरंतर बनाए रखने की परिष्कृत कला है। जनसंपर्क एक ऐसी विधा है जो हमारे रोजमर्रा के जीवन से भी जुड़ी है। दरअसल जैसे ही आप सामाजिक होते हैं जाने-अनजाने जनसंपर्क के दायरे में आ जाते हैं। अमूमन प्रत्येक व्यक्ति दिन की शुरुआत से ही जनसंपर्क आरंभ कर देता है।
आप घर से बाहर निकलते हैं और सामने पड़ने वाले हर जाने-पहचाने व्यक्ति का अभिवादन करते हैं। कोई खास मिला तो दुआ-सलाम के साथ-साथ उसका व उसके परिवारजन का हाल-चाल भी ले लेते हैं। अपने कार्यस्थल पर पहुंच कर औपचारिक ही सही लेकिन मुस्कान के साथ बॉस व सहकर्मियों से मिलते हैं। आखिर आप ऐसा क्यों करते हैं? जवाब साफ है- ताकि लोगों से आपके संबंध अच्छे बने रहें। ताकि आप नए-नए संपर्क बना सकें और अपने संबंधों को बेहतर बना सकें। रिश्‍ते संभालने की इसी कला का व्यवस्थित रूप ‘जनसंपर्क’ कहलाता है।
जनसंपर्क की आवश्‍यकता
सूचना क्रांति के वर्तमान दौर में ‘इंर्फोमेशन इज पॉवर’ का सिंद्वात काम करता है। यानी जिसके पास जितनी जानकारी और ज्ञान है वह सबसे ज्यादा शक्तिवान है। ऐसे में जनसंचार माध्यम महत्ती भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। जनसंचार एक अम्ब्रेला टर्म है जिसमें जनसंपर्क भी शामिल है। दोनों सहसंबंधित हैं जहां जनसंचार के लिए जनसंपर्क साधन बनता हैं वहीं जनसंपर्क की गतिविधियों हेतू जनसंचार के साधन एक माध्यम की तरह काम आते है। जनसंपर्क नए संपर्क बनाने और पुराने संबंधों को सहेजे रखने की व्यवस्थित कला ही नहीं बल्कि परस्पर सूचना संप्रेषण का कारगर जरिया है। अब प्रश्‍न यह उठता है कि आखिर हम अपने संपर्क स्रोतों को क्यों सहेजे?
यदि पत्रकार/मीडियाकर्मी के नजरिए से देखा जाए तो सफल पत्रकार वही है जिसके संपर्क स्रोत दूसरों से बेहतर हैं। पत्रकारिता व समाचार संकलन में स्रोत की खासी अहमियत होती है और संपर्क बनाने की कला में पारंगत पत्रकार बाकी की तुलना में ज्यादा, जल्दी व बेहतर समाचार पा जाता है। यही नहीं अपने इन्हीं स्रोतों के जरिए कुशाग्र पत्रकार स्वयं को पत्रकारिता जैसे चुनौतिपूर्ण पेशे में मजबूती से टिकाए रखने व पहचान बनाए रखने में भी सफल होतें हैं।
जनसंपर्क केवल पत्रकारिता या जनसंचार की किसी अन्य विधा से जुड़े व्यक्ति के लिए ही नहीं अपितु किसी भी सामाजिक व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। एक व्यक्ति के तौर पर हम केवल अपने व अपने परिवार के लिए ही नहीं काम करते बल्कि अप्रत्यक्ष तौर पर हम अपने समाज व देश के लिए भी काम करते है। ऐसे में हम जिस समाज में रहते है उससे हमारा एक अव्यक्त रिश्‍ता बन जाता है। हम मानें न मानें लेकिन जिस समाज में हम पले-बढ़ें हैं उसके प्रति भी हमारी कुछ जिम्मेवारी बनती है। जनसंपर्क यही कहता है कि सूचनाओं के आदान-प्रदान के साथ पारस्परिक संबंधों को बनाए रखा जाए ताकि एक बेहतर समाज का निर्माण हो सके। वैसे भी एक खुशहाल जीवन के लिए परस्पर अच्छे संबंध महत्ती भूमिका निभाते हैं। सर्वविदित है कि व्यवहार-कुशल लोग अन्य की तुलना में ज्यादा मान कमाते हैं।
परिभाषा
विभिन्न विद्धानों ने जनसंपर्क को अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया है। इसलिए इसे समझने के लिए पहले उसके संदर्भ को देखना आवश्‍यक है। पत्रकारिता के नजरिए से जनसंपर्क ‘संपर्क बनाने की कला है।’ सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ‘जनसंपर्क का उद्देश्‍य है व्यक्ति, समुदाय और समाज में परस्पर एकीकरण।’ व्यावसायिक रूप से ‘प्रचार का परिमार्जित परिष्कृत, सुसंस्कृत रूप ही जनसंपर्क कहलाता है।’ वहीं अगर राजनैतिक संदर्भ में जनसंपर्क को समझना हो तो ‘जनमत का अभियंत्रण/इंजीनियरिंग ही जनसंपर्क है।’ इसे विस्तृत रूप से समझना हो तो वेबस्टर शब्दकोश के अनुसार ‘कोई उघोग, यूनियन, कॉपोरेशन, व्यवसाय, सरकार या अन्य संस्था जब अपने ग्राहकों, कर्मचारियों, हिस्सेदारों या जन-साधारण के साथ स्वस्थ और उत्पादक संबंध स्थापित करने या उन्हें स्थायी बनाने के लिए प्र्रयत्न करें, जिनसे वह अपने आपको समाज के अनुकूल बना सके अथवा अपना उद्देश्‍य समाज पर व्यक्त कर सके, उसके इन प्रयत्नों को जनसंपर्क कहते हैं।’
ब्रिटीश इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक रिलेशसं के द्वारा दी गयी सार्वभौमिक परिभाषा इसे स्पष्टतः कहती है कि ‘जनसंपर्क जनता और संगठन के बीच सोच-समझकर, योजनाबद्व ढंग से निरंतर किया जाने वाला प्रयास है।’
भारत में जनसंपर्क: संक्षिप्त इतिहास
भारतीय संस्कृति में ‘वसुदैव कुटुंबकम’ की अवधारणा सदियों पुरानी है, इसलिए यहां कुटुंब में रहने के लिए परस्पर संबंधों के महत्व को हमेशा ही प्राथमिकता मिली है। पौराणिक काल से ही लोक-व्यवहार और लोकमत हमारे समाज का अभिन्न अंग रहे हैं। इसी संदर्भ में देखें तो नारदमुनी न केवल पहले पत्रकार थे बल्कि मूलतः एक जनसंपर्क अधिकारी थे जो पूर्णरूपेण संबंध सहेजने की कला में पारंगत थे। कालांतर में कई शासकों द्वारा बनवाए गए मंदिर, धर्मशालाएं व अन्य ऐतिहासिक इमारतों, यज्ञों (जैसे अश्‍वमेघ) आदि के पीछे उनकी सांस्कृतिक, धार्मिक अभिव्यक्ति के अलावा अपना शक्ति प्रदर्शन व जनता के बीच अच्छी छवि बनाए रखना ही मुख्य कारण था। आरंभिक सभ्यताओं में भी शासक के लिए यह माना जाता था कि वह दैवीय शक्ति से संपन्न है। उनकी प्रशंसा में काव्य रचे जाते थे और गायक अपने गायन से शासकों के शौर्य का वर्णन कर उन्हें प्रचारित करने का काम करते थे। ताकि लोकमत उनके पक्ष में बना रहे।
कई राजा अपने राज-काज की व्यवस्था को परखने और जनता के मन को बांचने के लिए प्रजा के बीच भेष बदल कर जाते थे। महात्मा बुद्ध और आदिशंकराचार्य जैसे धार्मिक विद्वानों ने भी अपने-अपने सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिए कई स्थानों का भ्रमण किया। जगह-जगह घूम कर जन समुदाय की भाषा में भाषण दिए और उनसे संपर्क स्थापित किया। जनसंपर्क का सबसे संगठित प्रयास अशोक के काल में देखने को मिला। अशोक और उसके सहयोगियों ने बौद्व धर्म को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए मौखिक व्याख्यानों के अलावा स्थापत्य कला का भी भरपूर प्रयोग किया। बौद्व स्तूपों, स्तंभों, शिलालेखों का बड़े स्तर पर निर्माण करवाया गया। अशोक ने जगह-जगह बौद्व की मूर्तियों व बुद्ध के लिखित उपदेशों के माध्यम से बौद्व धर्म की विचारधारा को परिलक्षित करवाया।
ब्रिटिश भारत में जनसंपर्क की शुरुआत के पीछे व्यावसायिक कारण निहित थे। देश में ग्रेट इंडियन पेनिसुलर (जीआईपी) रेलवे सेवा शुरू करने का मुख्य मकसद दूरदराज के इलाकों से कच्चे माल को लाना और फिर उसका निर्यात करना था। लेकिन ब्रिटीश कंपनी ने यह जान लिया की रेलवे की आया तभी हो पाएगी जब अधिकाधिक यात्रियों को आकर्षित किया जाए। 1920 की शुरुआत में जीआईपी ने इंग्लैंड में अपना प्रचार अभियान चलाया और भारत के भीतर ट्रैवलिंग सिनेमा के माध्यम से अपना जनसंपर्क किया। रेलवे बोर्ड ने इसके लिए बकायदा पब्लिसिटी ब्यूरो खोलकर लंदन और न्यूयार्क में भी अखबारों में विज्ञापन के जरिए खासा प्रचार किया।
पहले विश्‍वयुद्ध (1914-18) में इंग्लैंड ने अपना पक्ष भारतीय जनता को समझाने व समर्थन हासिल करने के लिए जनसंपर्क का सहारा लिया। जिसके जरिए प्रेस के माध्यम से जनता को सूचित किया जा सके। टाइम्स ऑफ इंडिया के तत्कालीन संपादक स्टैनले रीड की अध्यक्षता में सेंट्रल पब्लिसिटी बोर्ड की स्थापना की गयी। जिसके सदस्यों के तौर पर आर्मी और विदेश मंत्रालय के अधिकारियों को भी शामिल किया गया। युद्ध की समाप्ति पर 1921 में सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इंर्फोमेशन बनाकर पब्लिसिटी बोर्ड को उसके तहत लाया गया। इसका निर्देशक पद इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के प्रो़0 रश्‍ब्रूक विलियम को सौंपा गया। 1923 में ब्यूरो का नाम बदलकर डायरेक्टोरेट ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्षन रख दिया गया। जिसे 1931 में बदलकर डायरेक्टोरेट ऑफ इंर्फोमेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग कर दिया गया।
दूसरे विश्‍वयुद्ध (1939-45) के दौरान भी सरकार को जनता में युद्ध संबंधी सूचना प्रसारित करने की आवश्‍यकता महसूस हुई। ऐसे में डिपार्टमेंट ऑफ इंर्फोमेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग के जरिए जनता के बीच सूचना देने और लोकमत बनाए रखने के लिए निरंतर प्रयास किए गए।
आजाद भारत में जनता में राष्ट्रीयता की भावना बरकरार बनाए रखना बेहद आवश्‍यक हो गया था। देश विभाजन की विकट स्थिति देख चुका था इसलिए भारत सरकार के सामने देश की एकता, अखंडता बनाए रखने की चुनौति सामने थी। एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में देश एक नया दौर देख रहा था। ऐसे में लोकमत महत्वपूर्ण हो गया और जनता से संपर्क बनाए रखने के लिए जनसंपर्क का महत्व बढ़ता गया।
नयी औद्योगिक नीति (1991) लागू होने के बाद औद्योगिकरण को पंख मिले और देश में कई देशी-विदेषी कंपनियों ने अपने पांव जमाए। ऐसे में नए ग्राहकों के बीच अपनी पहुंच बढ़ाने और उसे बनाए रखने के लिए विभिन्न कार्पोरेट घरानों ने जनसंपर्क के महत्व को समझा। उनमें टाटा ग्रुप सबसे अग्रणी था। अग्रणी इसलिए क्योंकि टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी नसरवानजी टाटा ने 1892 से ही समाजसेवा के क्षेत्र में कार्य आरंभ कर दिया था। टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड ने 1912 में उत्पादन शुरू करने के साथ ही जनसंपर्क संबंधी गतिविधियों को गंभीरता से लिया। जंहागीर रतनजी दादाभाई टाटा (जेआरडी टाटा) ने अपनी दूरदर्शी सोच के चलते कारपोरेट सोशल रिसपॉसेबिलिटी की अहमियत को समझ कर उस दिशा में कार्य आरंभ कर दिया। उसी सोच के चलते जमशेदपुर जैसी पहली इंडस्ट्रीयल टाउनशिप खड़ी हुई, जिसमें टाटा के सभी कर्मचारियों को सभी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवायी गयीं।
वर्तमान सूचनायुग में जनसंपर्क का महत्व दिनोंदिन बढ़ रहा है। आज हर देशी-विदेशी कंपनी अपने जनसंपर्क पर विशेष ध्यान देती है। फिर वह चाहे सरकारी हो, सार्वजनिक हो या निजि, प्रत्येक संस्थान अपने कर्मचारियों और ग्राहकों के बीच सूचनाओं के निर्बाध आदान-प्रदान हेतू जनसंपर्क को खासा महत्व देता है।
जनसंपर्क और जन (पब्लिक)
किसी भी संस्थान या कंपनी के लिए जन यानी पब्लिक बेहद महत्वपूर्ण है। क्योंकि उनके जरिए ही किसी संगठन का कार्य सुचारू रूप से चलता है। किसी भी संस्था के लिए पब्लिक कई प्रकार की हो सकती हैं। वह सभी समूह जिनके हित किसी न किसी रूप से किसी संस्थान से जुड़े हैं उसके लिए पब्लिक कहलाते हैं। जनता, कर्मचारी, उपभोक्ता/ग्राहक, निवेशक, विक्रेता, उद्योग जगत, सरकार एवं गैर-सरकारी संस्थान आदि विभिन्न समूह किसी न किसी हित के लिए संगठन से जुड़े होते हैं। जैसे-:
  • जनता – रोजगार
  • कर्मचारी – पारिश्रमिक एवं काम करने के लिए बेहतर सुख-सुविधा
  • उपभोक्ता/ग्राहक – बेहतर उत्पाद एवं सेवाएं
  • निवेशक – बेहतर रिटर्न
  • विक्रेता – अधिकाधिक आर्डर
  • उद्योग – लाभ
  • सरकार – कर
  • गैर-सरकारी संस्थान – वित्तिय संस्थान
इस प्रकार विभिन्न समूह किसी संगठन से अपने-अपने लाभ की आशा के चलते जुड़े होते हैं। यह अलग-अलग तरह से संगठन की प्रगति में सहायक बनते हैं। इसलिए संस्था को इनसे बेहतर तारतम्यता बनाए रखना आवश्‍यक होता है। यहां जनसंपर्क की जरूरत पड़ती है। जनसंपर्क विभिन्न समूहों के लिए विभिन्न स्तर पर संपर्क के लिए गतिविधियां चलाता है।
इसके लिए मुख्यतः दो तरह का जनसंपर्क कार्य किया जाता है-:
1. आंतरिक जनसंपर्क (इन्टर्नल पीआर)
2. बाह्य जनसंपर्क (एक्सटर्नल पीआर)
आंतरिक जनसंपर्क से तात्पर्य है अपने अधिकारियों और कर्मचारियों के मध्य सूचना संप्रेशण। इसमें परस्पर संचार कायम रखकर, उन्हें संगठित कर संस्था के उद्देश्‍यों की दिशा में काम करवाया जाता है। किसी भी संस्था के लिए उसके समस्त कर्मचारी ‘इन्टर्नल पब्लिक’ हैं। हाउस जर्नल, बुलेटिन बोड, ई-मेल आदि के जरिए जनसंपर्क बनाए रखा जाता है।
बाह्य जनसंचार में कंपनी या संस्था से इतर अन्य समूहों से संपर्क बनाए रखा जाता है। जिनमें ग्राहक/उपभोक्ता, विक्रेता, शेयरहोल्डर, मीडिया, सरकार, अन्य कंपनियां आदि शामिल हैं। यह किसी संस्थान के लिए ‘एक्सटर्नल पब्लिक’ कहलाते हैं। इनसे संपर्क बनाए रखने के लिए प्रेस व संचार के अन्य साधन कारगर साबित होते हैं।
विभिन्न क्षेत्रों में जनसंपर्क के मुख्य दो कार्य
सरकारी क्षेत्रसार्वजनिक क्षेत्रनिजी क्षेत्र
1.  सरकार/संस्थान की योजनाओंनीतियों,सफलताओं एवं कार्यों के बारे में निरंतर सूचना प्रेषित करना।2.  जनता को नियमों प्रावधानोंतत्कालीन परिदृश्‍य और उनसे जुड़े प्रत्येक महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में सूचित व शिक्षित करना।1. मानव संसाधनमुद्दों का निवारण एवं आपातकालीन स्थितियों से निपटना। 
2. जनता के प्रश्‍नोंआपत्तियों एवं उनके सुझावों के लिए तैयार रहना।

1.  अधिकारियों व कर्मचारियों के मध्य संपर्क बनाए रखना। 

2.  ग्राहकों/विक्रेताओं/ उपभोक्ताओं से परस्पर संपर्क बनाए रखना। मीडिया के जरिए ब्रांड को प्रचारित करते रहना।
वैश्विक और अन्तर्राष्ट्रीय जनसंपर्क
वैश्विक जनसंपर्क (ग्लोबल पब्लिक रिलेशसं) और अन्तर्राष्ट्रीय जनसंपर्क (इंटरनेशनल पब्लिक रिलेशसं) को सामान्यतः एक ही मान लिया जाता है जबकि दोनों में अंतर है। विश्‍व के कई देशों से बड़े स्तर पर जनसंपर्क बनाए रखना वैश्विक जनसंपर्क में आता है जबकि दो या कुछ अधिक देशों के साथ सूचनाओं का आदान-प्रदान एवं संबंध बनाए रखना अन्तर्राष्ट्रीय जनसंपर्क कहलाता है। जैसे कई स्वयंसेवी संगठन जैसे-: एमनेस्टी इंटरनेशनल, ग्रीनपीस, रेडक्रास आदि विश्‍व के कई देशों में समाज कल्याण संबंधी कार्य करते हैं। प्रत्येक देश में इन एनजीओ को विविध संस्कृतियों और विविध भाषा के लोगों से मिलना जुलना पड़ता है। उनके सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक धरातल को समझने के बाद समाज कल्याण का कार्य करना होता है।
मल्टीनेशनल कंपनियों को भी कई देशों में अपना व्यापार फैलाने के लिए देश, काल, परिस्थिति के अनुसार ही काम करना होता है। जैसे-: नोकिया मूलतः फिनलैंड की कंपनी है लेकिन वैश्विक स्तर पर फैले अपने व्यापार के चलते वह विभिन्न देशों में अलग-अलग तरह के विज्ञापन, प्रचार अभियान, विपणन व विक्रय प्रणाली अपनाती है ताकि ज्यादा से ज्यादा ग्राहक उसके उत्पाद की ओर आकर्षित हों। इसी तरह कई देश व उनकी सरकारें भी वैश्विक जनसंपर्क के जरिए वृहद स्तर पर अपने देश की सकारात्मक व प्रगतिशील छवि दर्शाना चाहते हैं ताकि आर्थिक व कूटनीतिक दृष्टि से अपने देश को बेहतर साबित कर सकें।
अन्तर्राष्ट्रीय जनसंपर्क में दो या दो से कुछ अधिक देशों के बीच अपनी योजनाओं और गतिविधियों का नियोजन, कार्यान्वयन व परस्पर सूचना संप्रेषण आता है। इसमें अपने सहयोगी और मित्र राष्ट्रों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए सूचनाओं का निर्बाध हस्तांतरण अनिवार्य है। अन्तर्राष्ट्रीय जनसंपर्क के लिए भी उन्हीं सब साधनों का इस्तेमाल किया जा सकता है जो अपने आन्तरिक जनसंपर्क के लिए अपेक्षित होते हैं। लेकिन किसी देश विशेष में कुछ विशेष स्थितियों में जब ‘विशेष प्रकार’ के जनसंपर्क की आवश्‍यकता होती है तो उसके अनुकूल साधनों का चयन तथा उनका उपयोग करना अनिवार्य हो जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय जनसंपर्क में की गयी एक छोटी-सी भूल भी किसी अप्रिय स्थिति का कारण बन सकती है। इससे किसी देश या कई देशों के साथ मैत्री संबंध भी प्रभावित हो सकते हैं। इसी प्रकार जनसंपर्क का एक छोटा-सा प्रयास भी कई सार्थक परिणाम का कारक बन सकता है। इसीलिए वैदेशिक प्रचार विभाग, विदेश में कार्यरत अपने जनसंपर्क अधिकारियों और राजनयिकों को बकायदा इस दिशा में प्रशिक्षित किया जाता है।
अलग-अलग देशों में अपने स्थानीय कार्यालय खोलकर मल्टीनेशनल कंपनियां भी स्थानीय जनसंपर्क अधिकारी के जरिए संबंधित राष्ट्र के समाज व आवश्‍यकता के अनुरूप अपना काम बढ़ाती हैं। आपसी समझ और परस्पर संबंध बनाए रखने के लिए आज न केवल व्यवसायिक बल्कि राजनैतिक स्तर पर भी अन्तर्राष्ट्रीय जनसंपर्क का महत्व बढ़ता ही जा रहा है।
जनसंपर्क और तकनीक
प्रसिद्ध संचार विद्वान मार्शल मैक्लूहान ने ‘विश्‍व को एक ग्लोबल विलेज यानी वैश्विक गांव माना है। खासकर संचारक्रांति के इस युग में मीडिया प्रौद्योगिकी ने समय व स्थान की दूरी को पाट दिया है। अब हम घर बैठे देश-दुनिया के हाल जान सकते हैं। साथ ही विश्‍व के किस कोने में क्या घटित हो रहा है यह हम पल-भर में जान जाते हैं। ऐसे में जनसंपर्क के क्षेत्र में भी सूचना प्रौद्योगिकी ने संभावनाओं के नित-नए द्वार खोले हैं। आज जनसंपर्क में तकनीक का प्रयोग लगभग अनिवार्य-सा हो गया है। जनसंपर्क अधिकारी ई-मेल के जरिए वांछित लोगों (पब्लिक) तक पहुंच सकता है। परस्पर सूचना संप्रेषण के लिए मोबाइल और ई-मेल ही कारगर जरिया हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स भी आजकल जनसंपर्क का बेहतर माध्यम साबित हो रही हैं। इसके अलावा अन्य संस्थागत तौर-तरीकों जैसे-: हाउस जर्नल, नोटिस बोर्ड, वीडियो मैगजीन, सजेशन बॉक्सेज आदि के द्वारा भी प्रभावी जनसंपर्क स्थापित किया जा सकता है।
जनसंपर्क के तीन सोपान
जनसंपर्क अधिकारी किसी भी जनसंपर्क कार्य की शुरूआत इन तीन सोपानों से गुजर कर करता है-:
1. ध्यान आकर्षित करना (ब्रांड प्रमोशन)
2. विश्‍वास अर्जित करना (इमेज बिल्डिंग)
3. समझ विकसित करना (क्राइसिस मैनेजमेंट)
उद्धाहरणार्थ-: यदि किसी कंपनी को अपना उत्पाद बाजार में लाना है और उसकी साख बढ़ानी है तो जनसंपर्क अधिकारी इन तीन सोपानों से गुजरेगा। सर्वप्रथम वह उत्पाद को बाजार में लांच करते समय इस प्रकार से ब्रांड या प्रोडक्ट का प्रमोशन करेगा कि ग्राहक का ध्यान तुरंत उत्पाद की ओर जाए। समय के साथ-साथ उस उत्पाद को बाजार में बनाए रखने के लिए उसके प्रति उपभोक्ता का विश्‍वास बनाये रखेगा ताकि उपभोक्ता वही उत्पाद इस्तेमाल में लाए। यदि कोई अवांछनिय आकस्मिक घटना उत्पाद की छवि को प्रभावित करती है या उसकी ब्रिकी में कमी लाती है तो ऐसे वक्त में जनसंपर्क अधिकारी का काम होगा उपभोक्ताओं के बीच समझ विकसित करना ताकि उनका उत्पाद में से भरोसा न उठे।
जनसंपर्क अधिकारी
किसी व्यक्ति, संगठन के विचारों, कार्यों को जनता को बतलाने, सरकारी योजनाओं, कार्यों को जन-जन तक पहुंचाने के अलावा राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय कंपनियों के ग्राहकों के साथ उत्पाद या सेवा के बारे में हरसंभव जानकारी साझा करने का दायित्व जनसंपर्क के कंधों पर ही है। इसके लिए बकायदा जनसंपर्क अधिकारी रखे जाते है। उन्हें संस्था के उद्देष्यों से अवगत कराने के बाद जनता से संवाद स्थापित करने हेतू रखा जाता है। ताकि वह संस्था और जनता यानी पब्लिक के बीच एक संचार सेतू की भूमिका निभा सके।
जनसंपर्क के विशेषज्ञ डॉ स्कॉट एम कटलिप ने किसी जनसंपर्क अधिकारी के लिए वांछनिय योग्यताएं बतायी हैं-:
‘आकर्षक व्यक्तित्व और प्रभावोत्पादक चरित्र, प्रचार या संदेश-प्रचार में प्रवीणता, विशेषतया लेखनशक्ति। लोकमत के निर्माण और इसके मूल्यांकन का अनुभव, प्रचार के लिए प्रस्तुत विषय पक्ष की पूरी जानकारी और अपने नियोक्ता का पूरा-पूरा विश्‍वास।’
जनसंपर्क अधिकारी यानी एक ऐसा व्यक्तित्व जो जनता से मेल करना, उन्हें प्रेरणा देना और विश्‍वास अर्जित करना जानता हो। मिलनसारी, वाक्पटु और सुलझे विचारों वाला बुद्धिमान व्यक्ति ही एक अच्छा जनसंपर्क अधिकारी बन सकता है। मूलतः उसे इन पक्षों पर ध्यान देना आवश्‍यक है- भाषिक एवं तकनीकी योग्यता, व्यवहार कुशलता एवं व्यक्तित्व।
जनसंपर्क और सहसंबंधित अवधारणाएं
जनसंपर्क में आंतरिक व बाह्य समूहों (पब्लिक) से तारतम्यता बैठाते हुए परस्पर सूचना-संवाद बनाए रखना होता है। ऐसे में जनसंपर्क से सहसंबंधित कुछ अवधारणाएं ऐसी हैं जिन्हें सरलतम ढंग से जानना आवश्‍यक है-:
1. विज्ञापन- किसी व्यक्ति, वस्तु या संस्था द्वारा मौद्रिक मूल्य देकर किया जाने वाला प्रचार।
2. पब्लिसिटी- जनता को आकर्षित करने हेतू संगठन द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाली लधु अवधि की प्रचार गतिविधियां।
3. प्रोपेगंडा- स्वहित के लिए निरंतर किया जाने वाला आरोपित (इंपोस्ड) प्रचार।
4. लॉबिंग- खास लोगों को प्रभावित करके, अपने पक्ष में करने की प्रक्रिया।
5. क्राइसिस-आपातकालीन स्थिति, जिसमें तुरंत कदम उठाने की आवश्‍यकता हो।
6. कारपोरेट सोशल रिस्पांसेबिलिटी- संस्थान द्वारा समाज के प्रति उत्तरदायित्व समझना व जनकल्याण के प्रति संवेदनशील होना।

संदर्भ ग्रंथ
1. संपूर्ण पत्रकारिताः डॉ अर्जुन तिवारी (विश्‍वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी)
2. पत्रकारिता एवं जनसंपर्क: एन0 सी0 पंत एवं मनीषा द्विवेदी (कनिष्क पब्लिशर्स)
3. पब्लिक रिलेशस प्रिसिंपल एंड प्रैक्टिस: प्रो0 के0 आर0 बालन एंड सी0 एस0 रायडु (हिमालया पब्लिकेशन)
Credit: www.newswrirers.in

http://www.newswriters.in/2015/06/08/science-communication-and-media-interactions/

विज्ञान का प्रसार और मीडिया की सहभागिता

By News Writers, June 8, 2015
रश्मि वर्मा।
विज्ञान हमारे जीवन के हर पहलू से जुड़ा है। आज विज्ञान ने न केवल मानव जीवन को सरल व सुगम बनाया है अपितु भविष्य के अगत सत्य को खोजने का साहस भी दिया है। प्रकृति के रहस्यों को समझने के लिए जहां विज्ञान एक साधन बनता है वहीं उन अनावृत सत्योa को जन-जन तक पहुंचाने का काम करता है मीडिया। वर्तमान समय में जनसंचार के विविध साधनों ने जनता को विज्ञान से जोड़ने का प्रयास किया है। यह सभी जानते हैं कि विज्ञान समाज के हर व्यक्ति के जीवन का अभिन्न अंग है परन्तु विरले ही इसे समझने में रूचि दिखाते हैं। ऐसे में मीडिया के जरिए विज्ञान और जन के बीच व्यापी इस दूरी को पाटा जा सकता है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने के नाते मीडिया न केवल जनता को सूचित करने‚ शिक्षित करने व मनोरंजन करने का काम करता है बल्कि लोकजागृति पैदा करने‚ सामाजिक विकृतियों को दूर करने‚ आदर्श मूल्य और मानदंड स्थापित करने‚ उचित दिशा-निर्देश देने‚ सर्जनात्मकता पैदा करने‚ रूचि का परिष्कार कर एक जन-जीवन के नियामक की भांति काम करता है। जनता का महत्वपूर्ण मुद्दों के प्रति ध्यान आकर्षित कर उन्हें जानरूक व सजग बनाने का काम भी मीडिया का ही है। ऐसे में मीडिया जनमत नेता यानी ओपिनियन लीडर की तरह काम करता है और एक ओेपिनियन लीडर द्वारा किए गए विज्ञान संचार (विज्ञान और समाज के बीच दूरी घटाने का प्रयास) की ग्राहयता भी ज्यादा होगी। इसलिए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने के लिए आवश्‍यक है कि जनसंचार माध्यमों के जरिए विज्ञान संप्रेषण की विविध संभावनाओं को तराशा जाए।
भारतीय संदर्भ में विज्ञान प्रसार
वर्तमान युग तकनीक का युग है। जहां ज्ञान और विज्ञान किसी देश की दिशा और दशा निर्धारित करते हैं। जो जितना ज्यादा जानकारी और तकनीक से लैस है उतना ही शक्ति संपन्न है। सूचना क्रांति के मौजूदा दौर में विज्ञान ने ही सूचना व ज्ञान के परस्पर प्रवाह को संभव बनाया। सर्वविदित है कि किस तरह विज्ञान ने हमारी जीवनशैली को पूर्ण-रूपेण प्रभावित किया है। जहां इसमें मानव जीवन को सरल‚ सुविधाजनक बनाया वहीं संपूर्ण विश्‍व को पल-भर में खत्म करने की विनाशक शक्ति भी दी है। लेकिन इसका सही प्रयोग आज के समय की जरूरत है।
पुरातन संदर्भ में देखें तो विज्ञान और विज्ञान संचार हमारे ग्रंथों से गहरे जुड़ा है। हमारे देश में ज्ञान के वृहद स्रोतों के रूप में धर्मग्रंथों को बांचने की प्रथा रही है। प्राचीन काल में कई महान् ग्रंधों का सृजन हुआ जिसमें विज्ञान और विज्ञान से जुड़े विविध पक्षों की व्याख्या थी। तब भी उसे जन-जन तक न पहुंचाकर एक विशिष्ट वर्ग तक ही सीमित कर दिया गया। आमतौर पर ज्ञान विज्ञान के ज्यादातर ग्रंथ आम बोलचाल की भाषा में न लिखकर‚ शास्त्रीय भाषा में ही लिखे गए। जिन्हें बांचने का अधिकार भी ब्राहम्ण‚ पुरोहित वर्ग को ही था। जिनका आशय वह अपने यजमान व राज के लोगों को समझाते लेकिन फिर भी समाज का काफी बड़ा तबका इस ज्ञान से अछूता रहा। हमारे पौराणिक ग्रंथों की ऐतिहासिक संपदा को काफी नुक्सान तो आताताईयों के चलते हुआ। कई ग्रंथ तो सहेजे न जाने के चलते विलुप्त हो गए‚ कुछ जान-बूझकर समाप्त कर दिए गए‚ तो कुछ विदेशों में चले गए। इतिहास के पन्नों पर केवल उनका नाम ही रह गया।
अब ज्ञान-विज्ञान की वही बातें जो हमारे विद्वान सदियों पहले कलमबद्ध कर गए थे‚ जब विदेशों से प्रमाणित होकर आती हैं तो उनकी ग्राहयता बढ़ जाती है। जब हमारे जड़ी-बूटियों वाले देसी नुस्खों को विदेशी अपना फार्मूला बता कर पेटेंट कर लेते हैं तो हमारी नींद खुलती है। तब हमें आभास होता है कि अपने ग्रंथों में रचे-बसे विज्ञान को हमने पहले क्यों न समझा? क्यों उसकी अहमियत को हमने पहले प्रमाणिकता दी? क्यों उस विज्ञान को सरलतम ढंग से जन-जन तक पहुंचाने का काम नहीं किया?
केवल इतना ही नहीं हमारे समाज में खासकर ग्रामीण समाज में अभी भी जीने का ढंग इतना वैज्ञानिक है। जिन मुद्दों को लेकर ग्लोबल एजेंसियां और विश्‍व के कई देश तमाम सम्मेलनों और बहसों में उलझें हैं‚ उस दिशा में तो हमारा ग्रामीण समाज आज से नहीं बल्कि सदियों से चल रहा है। जैसे ग्लोबल वार्मिग के चलते ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन और क्योटो प्रोटोकाल से लेकर‚ कार्बन इर्मसन रेट में कटौती को लेकर तमाम बहसें चल रही है। सस्टेनेबल डेवलपमेंट को लेकर विश्‍व के विद्वान चिंतामग्न हैं। लेकिन हमारे ग्रामीण समाज में उपयुक्त में लाए जाने वाली गोबर गैस‚ सूखे पत्तों से खाना बनाना‚ अधिकाधिक पेड़ लगाना‚ प्राकृतिक संसाधनों का समझदारी से प्रयोग करने सरीखे कई उपाय हैं। बल्कि यहां तो प्रकृति को ईश्‍वर स्वरूप पूजना और उसका संरक्षण करने की प्रथा रही है। बस जरूरत तो इस बात की है कि औद्योगिकरण की आंधी इन प्रयासों को प्रभावित न करें और इन वैज्ञानिक प्रयोगों को प्रोत्साहन मिले। इसके अलावा और भी वैज्ञानिक तौर-तरीके ग्रामीण व शहरी समाज में संप्रेषित किए जाएं। जिसके लिए मीडिया एक कारगर जरिया है।
विज्ञान संचारः अवधारणा
विज्ञान संचार दरअसल वैज्ञानिक सूचनाओं और वैज्ञानिक विचारों को उनके स्रोत से लेकर लक्ष्य वर्ग तक किसी माध्ययम के द्वारा संप्रेषित करने की प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है। विज्ञान संचार को हम प्रायः दो वर्गो में बांट सकते हैं‚ (क) शास्त्रीय या शोधपरक विज्ञान संचार (ख) लोकप्रिय विज्ञान संचार। शोधपरक विज्ञान दरअसल वैज्ञानिकों‚ शोधकर्ताओं से संबंधित है। क्योंकि विज्ञान का जन्म प्रयोगशालाओं‚ अनुसंधान और प्रौद्योगिकी संस्थानों में होता है। नई खोजों‚ पेटेट आदि के बारे में जानकारी शोध पत्रों‚ संस्थागत वेबसाइट आदि के द्वारा होती है। यह जानकारी दरअसल तकनीकी भाषा‚ प्रारूप और अंग्रेजी में होती है। इस प्रकार के लेखन‚ प्रकाशन और संचार कोशोधपरक विज्ञान संचार की श्रेणी में रखते हैं।
लोकप्रिय विज्ञान संचार वह है जो आम जन के लिए संचार किया जाता है। इसमें ऐसे शोध‚ खबरों या मुद्दों को उठाया जाता है जो जनता के हित से जुड़े हैं। जनरूचि के ऐसे विषयों को उठाकर उन्हें मीडिया के जरिए जन-जन तक पहुंचाया जाता है। लेकिन इसमें ध्यान रखने वाली बात यह है कि शोध और विज्ञान की भाषा गूढ़ और वैज्ञानिक शब्दावली में रची होती है। जनता की भाषा में ढालना और उसे लक्षित श्रोता/दर्शक/पाठक वर्ग तक पहुंचाना ही मुख्य चुनौति है।
विज्ञान संचारः क्या हैं बाधाएं
विज्ञान जैसे सर्वव्यापी विषय के संचार में कुछ बाधाएं मार्ग अवरूद्ध करती हैं। इन्हें हम तीन श्रेणियों में रख सकते हैं- वैज्ञानिकों व प्रशासन संबंधी‚ मीडिया संबंधी और जन संबंधी।
वैज्ञानिकों व प्रशासन संबंधी बाधा- दरअसल वैज्ञानिक और शोधकर्ता अपने शोध से संबंधी ज्ञान व निष्कर्ष को सबसे साझा करने में झिझकते हैं। इसके पीछे दो वजह हैं, पहली- उन्हें लगता है कि उनके काम का सही आशय नहीं लगाने से से कुछ विवाद न हो जाए‚ कोई उनके विषय को चुरा न ले या बेवजह उनके शोध में व्यवधान न हो जाए। दूसरी- वह मीडिया में बात करके बेवजह की पब्लिसिटी से बचना चाहते हैं और नाम कमाने के स्थान पर उम्दा काम करने में विश्‍वास करते हैं।
कई सरकारी प्रयोगशालाओें और शोध संस्थानों में प्रयोग के दौरान मीडिया या किसी बाहरी व्यक्ति से उस विषय में बात करने की मनाही होती है। इसके अलावा भी मीडिया तक विभिन्न शोधपरक खबरों का पहुंचना आसान नहीं होता।
मीडिया संबंधी बाधा- मीडिया अधिकतर ऐसे विषयों को उठाना पसंद करता है जिनमें उसे आसानी से टीआरपी मिल जाए। पॉलिटिक्स‚ क्राइम‚ फिल्म इंडस्ट्री जैसे विवादास्पद मुद्दों की बजाय विज्ञान के ज्ञानपरक लेकिन निरस लगने वाले विषयों को मीडिया कवर करने से बचता है। गेटकीपिंग के समय कई ऐसे मुद्दे हटा दिए जाते हैं जिनमें दर्शक वर्ग की रूचि न मिलने की संभावना लगे। दूसरी वजह यह भी है कि उसे आसानी से विज्ञान विषय पर मौलिक जानकारी देने वाले विशेषज्ञ और ऐसे प्रोग्राम तैयार करने वाले प्रोफेशनल आसानी से नहीं मिलते।
जन संबंधी बाधा- जनता को विज्ञान से जुड़े विषय निरस लगते हैं। क्योंकि वैज्ञानिक शोधों और जानकारी ज्यादातर अंग्रेजी में और वह भी वैज्ञानिक शब्दावली से रची होती है। विज्ञान को गहरे न समझने वाले व्यक्ति को इन जानकारियों और शोधों का सही‚ सरल विश्‍लेषण चाहिए होता है जो उसे नहीं मिल पाता। विषय समझ न आने की वजह से जन की रूचि इनमें नहीं रहती।
मीडिया और विज्ञान प्रसार
मीडिया समाज का दर्पण हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने के नाते मीडिया न केवल जनता को सूचित करने‚ शिक्षित करने व मनोरंजन करने का काम करता है बल्कि लोकजागृति पैदा करने‚ सामाजिक विकृतियों को दूर करने‚ आदर्श मूल्य और मानदंड स्थापित करने‚ उचित दिशा-निर्देश देने‚ सर्जनात्मकता पैदा करने‚ रूचि का परिष्कार कर एक जन-जीवन के नियामक की भांति काम करता है। मीडिया अपने विविध रूपों यानी प्रिंट‚ रेडियो‚ टीवी‚ सिनेमा‚ इंटरनेट आदि के माध्यम से जनता तक सार्थक संदेष पहुंचाता रहा है।
विज्ञान संचार की महत्ता को देखते हुए यह जरूरी है कि विभिन्न मीडिया माध्यमों में विज्ञान परक विषयों को पूरी सरलता और सारगर्भिता के साथ जन के सामने रखा जाए। फिर चाहें वह प्रिंट मीडिया हो या रेडियो और टेलीविजन। इंटरनेट संजाल पर उपलब्ध विभिन्न मंच जैसे- सोशल नेटवर्किंग साइट‚ ई-पोर्टल हो या ब्लॉग। लार्जर दैन लाइफ का रंगीन पर्दा सिनेमा हो या हमारी संस्कृति में रचा-बसा फोक मीडिया जैसे- लोक-नाट्य‚ नुक्कड नाटक‚ कठपुतली आदि। यदि हम विज्ञान व स्वास्थ्य से जुड़े विषयों का सही चुनाव कर‚ उन्हें सरल लेकिन दिलचस्प भाषा में लक्षित दर्शक/श्रोता/पाठक वर्ग तक पहुंचाया जाए तो वह अपना प्रभाव अवश्‍य छोडे़गा।
दरअसल जनसंचार के विविध माध्यमों द्वारा समय-समय पर विज्ञान प्रसार का कार्य होता रहा है। फिर चाहें वह प्रिंट हो‚ टीवी हो या रेडियो लिखित व दृष्य-श्रृव्य माध्यमों के जरिए विज्ञान को जन तक पहुंचाने के कुछ ही सही लेकिन सार्थक प्रयास किए गए। अब तो न्यू मीडिया के विविध मंचों के जरिए भी विज्ञान व इससे संबंधित विषयों पर चर्चा की जाती है। आगे भी यदि मीडिया के जरिए विज्ञान संचार का कार्य निर्बाध गति से होता रहा तो समाज के लिए हितकर होगा।

संदर्भ
1. हिंदी में विज्ञान लेखनः व्यक्तिगत एवं संस्थागत प्रयास (विज्ञान प्रसार‚ संपादक- अनुज सिन्हा‚ सुबोध महंती‚ निमिष कपूर‚ 2011)
2. विज्ञान संचारः मूल विचार (विज्ञान प्रसार‚ मनोज पटैरिया‚ 2011)
3. ब्राडकास्टिंग सांइस (यूनाईटेड नेशंस एजुकेशनल‚ सांइटिफिक एंड कल्चरल आर्गनाइजेशन‚ केपी मधू और सव्यासाची जैन‚ 2010)
4. सांइस इन इंडियन मीडिया (विज्ञान प्रसार‚ दिलीप एम साल्वी, 2002
credit: www.newswriters.in 

मंगलवार, 22 मार्च 2011

दूषित होता यमुना नीर.....

बात बहुत पुरानी है, कई युग पहले की। द्रवापर युग में कालिया नामक नाग ने यमुना नदी को अपने विष से जहरीला बना दिया था। तब भगवान् श्री कृष्ण ने कालिया को नाथ कर, यमुना नदी का उद्धार किया। यह कहानी है तो बहुत पुरानी पर कंही न कंही वर्तमान से जुडती है। अंतर सिर्फ इतना है की आज कलयुग में यह काम कालिया नाग नही इंसान कर रहा है।

यमनोत्री से निकल कर, इलाहाबाद में गंगा में समां जाने वाली यमुना नदी, सात राज्यों से गुजरती है। अपनी उद्गम स्थल से लेकर लेकर ताजेवाला ( १७२ किलोमीटर) तक अथार्थ पर्वितेय इलाक़े में ही यमुना का पानी साफ़ मिलता है। जैसे-जैसे यह आगे बदती जाती है, पानी की रंगत बदलने लगती है। बाकि की रही-सही कसार दिल्ली में प्रवेश करते ही पूरी हो जाती है, क्यूंकि यंहा यमुना नदी २२ किलोमीटर लम्बे नाले में परिवर्तित हो जाती है। दिल्ली में यमुना २२ किलोमीटर बहती है, जो इसकी कुल लम्बाई का महज २ प्रतिशत ही है। लेकिन यमुना के दूषित होने में, ७० फीसदी योगदान भी दिल्ली का ही है। जल में बढते प्रदुषण का तो एक मुख्य कारणदिल्ली की ४५% प्रतिशत आबादी अनाधिकृत iकालोनियों में रहती है। जहाँ गन्दगी के समुचित निस्तारण की व्यवस्था न होने का खामियाजा भी यमुना को ही भुगतना पड़ता है। वर्ष २००१ में यंहा सीवेज व्यवस्था का महज १५ प्रतिशत हिस्सा ही चालू हालत में था। हालाँकि पिछले ४० वर्षों में सीवेज ट्रीटमेंट में लगभग ८ गुना की बढोतरी हुई है लेकिन इसके साथ ही १२ गुना कचरा भी पैदा होने लगा है। इसलिए आवश्यकता के अनुरूप शोधन का दिल्ली में अभाव है। यमुना को साफ़ करने की सरकारी कवायद में करोड़ों रूपये बहाने के बाद भी, यमुना की हालत जस की तस है। यमुना एक्शन प्लान, सी टी ऍफ़ से क्लोरोफार्म हटाने, दूषित पानी के शोधन और ओद्योगिक कचरे के निस्तारण सम्बन्धी कार्ययोजनाओं के बाद भी हालत सुधरी नही है। क्यूंकि प्रयासों में इमानदारी और जनभागीदारी का अभाव है।

अब वक्त आ गया है की हम अपनी जिम्मेदारी को समझें और अपनी प्राकर्तिक, धार्मिक सम्पद्दा के अस्तित्व की रक्षा करने के लिए आगे आयें..... क्यूंकि इस कलयुग में श्री कृष्ण तो अवतार लेने से रहे.....!!!

रविवार, 13 फ़रवरी 2011




आज
देखा एक छोटा-सा सपना
जिसमें आसमां रुई-सा उड़ता बादल था...
घिरी थी दूर-दूर तक हरियाली की चादर
हवाओं में घुली थी एक महक...
जो एहसास करा रही थी किसी के साथ होने का
पर आँखें खुली तो जाना,
सपना
टूट चूका था...!!

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

ये नदी मुझे बहुत भाती है.....


कोई बरसों पुराना नाता भी नहीं....
न इसके किनारे बचपन मेरा बिता है...
न ही इसे निहारते हुए संग किसी के,
कोई सपना हसीं देखा है...

फिर न जाने क्या वजह है
ये सरल सलिला...
मुझे इतना क्यूँ भाती है...
कल-कल करती, अनवरत बहती ये नदी...
मुझसे कुछ तो कहना चाहती है...

कई पड़ाव पार कर, कई खरपतवारों को साफ़ कर
इसने अपनी राह बनायीं है...
दुर्गम रास्तों से गुजर कर, जटिलताओं से उबरकर
ये अपने सही पथ पर आयी है...

तब भी उतनी ही निर्मल... स्वच्छ... निश्छल...
शायद यही कहना चाहती है मुझसे
हाँ... बस यही मैंने इससे सीखा है।

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

आज मैंने खुशबू को छुआ....

हाट में बिकते खिलोनो में...
वहां सजती... खनखनाती चूड़ियों में..
कटे गन्नों और बताशों में..
झूलों पर झूलते बच्चों की उन्मुक्त हंसी में...
मेले में जहाँ-तहां रमते उस सौंधेपन को छुआ...
हाँ... मैंने आज खुशबू को छुआ....

गुजरते हुए गाँव की उन संकरी पगडंडियों से...
वहां बहती ठंडी-ठंडी बयार में...
लहराहते पोधो की क्यारियों में सिमटी...
गीली मिटटी से आती उस ताजगी को छुआ...
हाँ... मैंने आज खुशबू को छुआ...


(रांची के स्थानीय मुंडमा मेले से वापस लौटकर)

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

बस यूँ ही....


न जाने क्यूँ आज फिर मन हुआ के
शब्दों
के जरिये दिल में आये जज्बात साझा
करूँ
जो अनायास ही उभर आए हैं
आख़िर क्या वजह है ....??

शायद ... आज फिर लगा की
किसी को समझना या अपना समझने की भूल करना वाकई बेमानी है ...

यह जानने के बाद भी ...
फिर किसी ख़ास पर विश्वास करना
किसी से बेवजह उम्मीद करना ...
उसके सपनो... उसकी आकंशाओ... से ख़ुद को जोड़ना
उसकी हर कामयाबी और नाकामयाबी को अपना समझना....
उसके ग़मों और खुशियों को साझा करना ....

और ख़ुद को यह समझाना की यह शख्स
जिंदगी की हर मोड़ पर हमारे साथ है...
शायद इंसान की नियति बन गयी है...

यह समझते हुए भी की धोखा देना...
किसी की उमीदों को तोड़ना और ...
बीच राह में साथ छोड़ जाना भी इन्सान की ही आदत है.....!!

भूलों सभी को मगर माँ-बाप को भूलना नहीं, उपकार अगणित हैं उनके बात यह भूलना नही।"


सोचा जाये तो कितनी बड़ी विडम्बना है की आजीवन अपने बच्चों को समर्पित, सामाजिक, नैतिक, आर्थिक सरंक्षण देने वाले यह बुजुर्ग स्वम अपने लिए सरकार का मुंह ताकने के लिए विवश हैं। क्यूंकि आज न तो उन्हें अपने बच्चों से कोई आशाएं रह गयी हैं और न ही कोई अपेक्षाएं। शायद कुछ बरसों पहले तक स्थिति इतने गंभीर नही थी। पहले बुजुर्गों को न केवल अपने परिवार से बल्कि समाज से भी वंचित आदर सम्मान मिलता था। किसी भी शुभ कार्य में उनकी राय व आशीर्वाद दोनों ही महत्वपूर्ण होता था। इनका सर पे हाथ होने से बड़ा संबल मिलता था। फिर आचानक इतना बदलाव क्युय आ गया की बरसों से चली आ रही भारतीय संस्कृति की नीवं जर्जर हो गयी? और बुजुर्गों को अवांछित महसूस कराया जाने लगा। आज वही घर के बड़े बुजुर्ग घर के किसी पुराने सामान की भांति अपेक्षित समझे जाते हैं। क्यूँ आज उनकी उपयोगी अनुभव दकियानूसी बन गए हैं तथा क्यूँ उन्हें बार बार यह एह्सास्द कराया जाता है की वे जरुरत से ज्यादा समय तक जी रहे हैं? इन् प्रश्नों का उत्तर बस यही है की आज हर एक व्यक्ति की नजरों में उसके मूल्यों से ज्यादा कीमत उसके हितों की है। वर्तमान भौतिकतावादी युग में प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने उप्कर्मो इस कदर उलझा है की उससे अपने स्वार्थ से इतर कुछ दिखाई ही नही देता और न ही इसके अलावा कुछ सोचना भी चाहता है। उसके अन्दर से संवेदना, मानवता अवं परोपकार रूपी रस सुख चूका है और वह अन्दर से बिलकुल खोखला होकर एक ठुन्था वृक्ष बन चुका है। वह इतना कठोर बन चुका है की उसे अपने जन्मदाता अपने माता पिता की संवेदनाओं को समझने की न तो कोई इचा है और न ही उनके सुख दुःख से कोई सरोकार। अपने गृहस्थ जीवन में व्यस्त आज के सपूत पाने माता पिता को या तो घर से पूरी तरह निष्कासित कर देते हैं या उन्हें साथ रखकर छोटे बचों की देखभाल, घर की पहरेदारी आदि जैसे काम करवाकर उनका "सही इस्तेमाल" करते हैं। कुछ होनहार सपूत तो वृधाश्रमों में अपने माता पिता को पहुंचा कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं लेकिन वह ये भूल जाते हैं की एक दिन वह भी माता पिता बनेगें और बुजुर्ग होने पर उनके अपने बच्चें भी उनसे ऐसा ही बर्ताव कर सकते हैं। तब उनपर क्या गुजरेगी? कहा भी गया है-

"संतान से सेवा चाहो तो संतान बन सेवा करो,
सेवा बिना सब व्यर्थ है सत्य यह भूलना नहीं।
भूलों सभी को मगर माँ-बाप को भूलना नहीं,
उपकार अगणित हैं उनके बात यह भूलना नही।"


उम्र के आखिरी पड़ाव में आकर जन्हा व्यक्ति की इन्द्रियाँ व् अंग निष्क्रिये हो जाते हैं, दुनिया जहाँ के सारा मोह भंग हो जाता है और समस्त मोह माया व्यर्थ प्रतीत होती है। ऐसे में सरे रिश्ते नाते बेमानी से लगने लगते हैं सिवाए अपने बच्चों के। जिनके चेहरे पर मुस्कान खिलने के लीये उन्होंने पूरी जिंदगी खुद अभावों में काट दी ताकि बचा पद्लिख कर कुछ बन सके, और जब जीवन भर अपने माता पिता पर आश्रित रहने वाले ऐसे बच्चें ही बुदापे में उनकी लाठी बनाने से मुकर जायें और आशय तक देने में हिचकिचाएं तो उनकी वेदना वास्तव में कष्टदायी होती होगी। ऐसे में एक सभ्य समाज में रहने का दावा करने वाले हम अपने बुजुगों को अपनी जीवन धरा से अलग कट कर रहने से रोक नही सकते? क्या केवल बस में एक दो सीट बुजुर्गों के लिए आरक्षित करवा कर या वृधाश्रमों का निर्माण करवाकर हम उनके प्रति अपने दायित्वों से पल्ला झड सकते हैं? क्या इतने भर से हमारे अपने बड़ों के प्रति हमारी निष्ठां की इतिश्री हो जाती है? इन् प्रश्नों का जवाब खोजे जाने की जरुरत है।
(पब्लिक सत्ता में ७ फरबरी, 200७ को प्रकाशित लेख के अंश )

सोमवार, 17 मई 2010

इकलौता मुसलमान......


चैन्ने की वजाहत मस्जिद के उस बरामदे में देर रात तक ६ लोग कलम, स्याही, रूलर की मदद से ३ घंटों में ४ कोरे पन्नों को "मुसलमान" नामक अखबार में बदल देते हैं।

फिलवक्त वह दुनिया का एकलौता हस्तलिखित अखबार है। पिछले ८१ सालों से कुल ६ लोगों क स्टाफ की बदोलत रोजान अपने २२ हज़ार पाठकों तक पंहुच रहा है। तक़रीबन ८०० वर्ग मीटर के दाएरे में बने उस एक कमरे के कार्यालय में तो एसी की ठंडक है और न ही प्रकाश की आधुनिकतम व्यवस्था। न कंप्यूटर है और न ही कोई टाइप राईटर। वंहा अगर कुछ अहि तो बस लोगों की लगन और मेहनत, जिसने "मुसलमान" नामक उर्दू अखबार को सबसे अलहदा बाबा दिया है।


'पिछले ८१ सालों से हम सब इसी तरह मिलजुलकर काम कर रहे हैं। जिंदगी ने साथ न निभाया हो या उम्र का तकाजा हो तो और बात है, लेकिन कभी कोई कर्मचारी यंहा से नौकरी छोड़ कर नहीं गया है।' यह कहते हुए रहमान हुसैनी गर्व से भर जाते हैं। हुसैनी इस समय देश के सबसे पुराने और सम्प्रति एकलौते हस्तलिखित उर्दू अखबार में चीएफ़ कॉपी राईटर के ओहदे पर काम कर रहे हैं। २० साल पहले रहमान ने इस उर्दू अखबार में खजांची की हसियत से काम करना शुरू किया था। फिर धीरे-धीरे उर्दू में कैलीग्राफी सिखने और खबरों में दिलचस्पी बढ़ने के साथ उन्होंने अखबार के पन्नों को भी देखना शुरू कर दिया। रहमान ही नहीं बल्कि इस अखबार से जुड़े बाकि कर्मचारी भी कई-कई सालों से इस उर्दू दैनिक में कार्यरत हैं। इसके पीछे वजह सिर्फ एक ही है और वह है की यंहा स्टाफ व्यावसायिक मानसिकता से नही बल्कि एक परिवार की भावना से काम कर रहा है।

चैने क त्रिप्लिकाने हाई रोड ऑफिस में स्थित "मुसलमान" अखबार को १९७२ में सैयद फैजुल्लाह ने अपने वालिद सैयद अज्मतुल्ला के सरंषद में शुरू किया था। सैयद फैजुल्लाह ने एक संपादक की हैसियत से अखबार को तरक्की देने के लिए अपनी साडी जिंदगानी इसी के नाम कर दी। दो साल पहले ७८ साल की उम्र में सैयद साहब दुनिया से रुखसत हो गए। लेकिन किसी के जाने से जिंदगी कान्हा रूकती है। पिछले ८१ सालों से अपने पाठकों का यह प्रिय अखबार रोजाना बदस्तूर महज ७५ पैसों में उन तक पहुँच रहा है। इतने सालों में कुछ भी नही बदला है। न तो करमचारियों के जज्बे में कोई फर्क आया है और न ही काम के तौर-तरीकों में। आज भी ८०० वर्ग मीटर के उस कमरे में जन्हा प्रिंटिंग का काम भी होता है। चारों तरफ बिखरे कागज के बीच अख्व्बार का सारा स्टाफ बड़ी तालिन्न्त्ता से अपने काम में व्यस्त मिलता है। कॉपी एडिटर्स देर रात तक बैठकर कलम और स्याही के जरिये ४ कोरे पन्नों पैर उर्दू भाषा में खबरों को बारीकी से उकेर्तें हैं। पहले पन्ने पर देश-दुनिया की प्रमुख खबरों को जगह मिलती है और दुसरे तीसरे पन्ने पर स्थानीय खबरें दी जाती हैं। चौथा पन्ना खेल जगत के समाचारों का रहता है। अखबार में विज्ञापन लगाने के बाद समाचार में लिखाई का काम होता है। गलतियों पर विशेष ध्यान दिया जाता है क्यूंकि एक भी गलती हो जाने पैर पूरा समाचार पत्र दुबारा बनाना पड़ता है। सैयेर साहब के बेटे आरिफ का कहना है की उनके अखबार "मुसलमान" के २२ हज़ार खरीददारों में से अधिकतर ऐसे हैं जिन्हें केवल उर्दू पड़ना ही आता है। वह भी अपने पाठकों का ख्याल रखकर खबरों का चुनाव करते हैं। न्यू डेल्ही, कोलकत्ता, हैदराबाद आदि जगहों में आखबार के संवादाता हैं। जो फ़ोन फाक्स आदि के जरिये खबरें भेजते हैं। बदती प्रसार संख्या के बावजूद भी अखबार ज्यादा मुनाफ्फा नहीं कम पता है। लेकिन संस्था ने हिमात नही हरी है। "हम साफ़ नियत से अपना काम कर रहे हैं और हमें पूरा यकीं है की हम मिलकर "मुसलमान" अकबार को बुलंद मुकाम तक जरुर पहुंचाएंगे।" यह कहते हुए आरिफ की आँखों में उम्मीद की एक चमक तैर गयी।

रविवार, 15 नवंबर 2009

तो क्या स्त्री सशक्त हुई?


दिल्ली की अत्याधुनिक बस में दिन दहाड़े एक कामकाजी महिला, नीलू सक्सेना के साथ उस दिन जो हुआ, वह तो महज एक बानगी भर है, महिलाओं पर होने वाले अत्याचार की। आम दिनों की तरह नीलू ने बस पकडी। उन्हें बस कुछ स्टाप दूर ही जाना था। उस लो फ्लोर बस में काफी भीड़ होने की वजह से वह ड्राईवर की सीट के पास ही खड़ी हो गई। थोडी ही देर में कुछ मनचले लडकें उनके पीछे आकर खड़े हो गए और लगे अपनी बेहूदा हरकतें करने। नीलू ने जब उन्हें ठीक से रहने को कहा तो उसकी हँसी उड़ने लगे। नीलू वंहा से हटकर जाने लगी तो एक लड़के ने उसे पैरों से फंसा कर गिराने की कोशिश की। इस हरकत पर लड़कों को डांटने और प्रतिरोध जताने पर उन्होंने नीलू के साथ हाथापाई करनी शुरू कर दी। हैरत की बस केन्डूक्टोर और ड्राईवर ने न ही आपत्ति जताई और न ही इस बाबत वंचित करवाई की। हद्द तो तब हुई जब बस में भरी भीड़ ने भी नीलू को बचने की कोशिश नही की उल्टा लड़खों को सीटों पर बैठे बैठे उकसाते रहे और अकेली महिला को पीटते देख तमाशे का मजा लेते रहे।

जब देश की राजधानी में ये हाल है तो गली कस्बों में क्या नज़ारे होते होंगे, उसकी आप कल्पना कर सकते हैं। महिलाओं के लिए काम करने वाले एक संगधन सेंटर फॉर इकुईटी एंड इन्क्लुसिओं के शोध में यह बात सामने आई है की महिलोयें यंहा ख़ुद को बिल्कुत भी सुरक्षित नही मानती। करीब ९८.६ महिलाओं का कहना था की उन्हें अक्सार छेड़ छड़ का सामना करना पड़ता है। इससे कुछ दिनों पहले ही उतरी करोलिना की एक संसथान आर.टी.आई इंटरनेशनल ने भारत में किए गए अपने रिसर्च के जरिये बताया है की करीब ८० फीसदी महिलाएं घरेलु हिंसा की शिकार हैं। यानी घर में भी सुरक्षित नही। ऐसे माहोल में "स्त्री सक्शक्तिकरण के दावों की पोल खुलती है।

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

कब बदलेगी यह मानसिकता ......


हमारे देशी में हर दूसरा आदमी यंहा व्याप्त गरीबी को देख कर सरकार को कोसने की आदत से मजबूर है, लेकिन क्या कभी हमने ख़ुद इसके उन्मूलन में कुछ योगदान दिया है? अब आप कहेंगे की महंगाई के इस दोर्र में ख़ुद अपने परिवार की गाड़ी चलने में ही इतनी मशक्कत करनी पड़ती है, भला हम देश की गरीबी मिटने मं क्या योग्दाद दे सकतें हैं? भले ही आप देश की गरीबी का समूल नाश नही कर सकते, देश के एक-दो बेरोजगारों को भी आजीविका नही दे सकतें लेकिन लेकिन कम से कम उनका हक मरने से तो बाज आ ही सकतें हैं। जी हाँ, अपने देश में ऐसे लोगों की कोई कमी नही है। अब मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर को ही ले लीजिये वंहा से ख़बर आई है की वंहा के नागदा प्रशासन ने ऐसे ६०० संपन्न लोगों की पहचान कर ली है जो गरीबों का हक मरर रहे थे। इन् लोंगों के पास खाने, रहने की कोई कमी नही। काफी संपत्ति है, अपना घर है, सुख सुविधा का साजो सामान है लेकिन फिर भी बीपीअल (बेलोव पोवेर्टी लाइन) का कार्ड बनवा कर गरीबों को दी जाने वाली चीनी, चावल, अनाज और अन्य मूलभूत सुविधाओं का उपभोग कर रहे थे। यह मानसिकता केवल उज्जैन तक ही सिमित हो ऐसा नही है, वंचितों का हक मरकर अपना स्वार्थ साधने की ये प्रवत्ति काफी विस्तृत रूप ले चुकी है। अपने आस पास ही आपको कितने ही ऐसे लोग मिल जायेंगे जिनका अपना घर फल, सब्जिओयों, अनाज से भरा पड़ा है लेकिन फिर भी धर्म के नाम पर ही सही लेकिन गरीबों के लिए लगाने वाले भंडारों की लाइन में लग कर भूखे पेटों का हिस्सा छिनते नजर आंतें हैं।

बुधवार, 26 अगस्त 2009

ओम्.................


देवों में प्रथम पूजनीय गणपति बाप्पा के उत्सव के साथ ही रहमत की बारिशों का माह -ऐ-रमजान भी शुरू हो चुका है। लेकिन हमारे चेहरों से ... हमारे परिवेश से.... हमारे बाज़ारों से रौनक नदारद है। ऐसा क्यूँ हैं... इससे जानने की कोशिश हम नही कर रहे हैं। हम नही जानना चाहते की क्यूँ अब ये त्यौहार, हमारे रिश्तों नातों को सहेजने में नाकाफी साबित हो रहे हैं। इससे ज्यादा उत्साहित तो हम वैलेंटाइन डे के दिन होते हैं। या फादर या मदर'स डे के दिन। तो अब हम ये मान लें की हमारे तीज त्योहारों की जगह पचिमी चकाचोंध ने ले ली है। जिस संस्कृति की महज अनुभूति पाने के लिए ही कुछ लोग सात समुन्दर पार कर... अपने जीवन की भोग विलासिता से उकता कर...भारत भूमि की झलक पाने आते हैं...वह यंहा के समाज में बसे उन्ही तीज त्योहारों और उत्सवों के रंग देखने आते हैं... जिनसे हम "ओल्ड फैशन" कह कर अपना दामन बचने की कोशिश कर रहे हैं। abही हाल ही में अमेरिकन माग्जीन "Newsweek" ने अमेरिकान्स पर किए गए अपने शोध के आधार पर कहा है की वंहा के लोग हिंदू होते जा रहे हैं। उनका ईश्वर के प्रति न केवल विश्वास बड़ा है बल्कि वह हिंदू लोगों की तरह ही धर्म का महत्व भी समझने लगें हैं। अमेरिका की ही तरह कुछ दुसरे पछिम देशों में भी योग, ध्यान और हिन्दुओं के आदि मन्त्र ॐ का महत्व बड़ा है।
कितनी हास्यापद स्थिति हैं हमारे देश के लोग अपनी उसी दरोहर को धीरे धीरे भूलते जा रहे हैं। हमारी नींद तब भी नही जब हमारा युवा धुएं के काश लगता हुआ डिस्को में शाम बिताने लगता है। हम तब भी नही जागते जब हमारी बेटियाँ पारंपरिक परिधानों की जगह मिक्रो मिनी में सजी धजी इतराती हैं। हम तब जागते हैं जब कोई विदेशी हमारे अपनी धरोहर(फिर चाहे वः योग हो या भारतीय मसाले) पर पेटेंट करवा कर उसे अपना साबित कर देता है। तब हम अपनी भारतीय सभ्यता की दुहाई देते हैं और इससे दुनिया की सभी संस्कृतियों में सबसे अलहदा बताते हैं और खुद को इस महँ संस्कृति का पैरोकार। आखिर कब तक हम यह रवैया अपनाएंगे? जरा एक बार शांत मन से बैठिये, सांस भरिये और ॐ का उचारण कीजिये, आपके अन्थ्मन के साथ साथ मस्तिक्ष पर जमी गर्त पल में झड जाएगी और फिर सरे सवालों के जवाब खुद ही मिल जायेंगे।